बी. ए. (प्रोग्राम) देश के लोकप्रिय पाठ्यक्रमों में रहा है। दिल्ली
विश्वविद्यालय में भी। सी. बी. सी. एस. लागू होने से पहले इस स्नातक पाठ्यक्रम में
दो वर्ष यानी चार सेमेस्टरों में हिन्दी के चार पेपर पढ़ाए जा रहे थे। अब हिन्दी
के केवल दो पेपर ही पढ़ने अनिवार्य होंगे। ये भी नए सिस्टम में सिद्धांतत:
अनिवार्य नहीं हैं। दो पेपर अँग्रेज़ी के अनिवार्य हैं और दो आधुनिक भारतीय भाषाओं
में से किसी एक भाषा के। चूँकि दो पेपरों का चयन भारतीय भाषाओं में से ही होना है
इसलिए ज़्यादातर हिन्दी को चुना जाता है। यदि कोई विद्यार्थी हिन्दी के अलावा किसी
और भारतीय भाषा को चुने तो उसके लिए हिन्दी पढ़ना कतई अनिवार्य नहीं होगा। मतलब यह
कि हिन्दी भाषा या साहित्य को बिलकुल पढ़े बिना भी सिद्धांतत: बी. ए. (प्रोग्राम)
को पूरा पास किया जा सकता है। बी. कॉम. (प्रोग्राम) की हालत भी लगभग यही है।
हिन्दी को यह पाठ्यक्रम-निकाला दिया है सी. बी. सी. एस. ने।
सी. बी. सी. एस. में एबिलिटी एन्हांसमैंट कोर्स के तहत एक पेपर
एन्वायरमैंट स्टडीज़ का होगा और एक पेपर अंग्रेज़ी या आधुनिक भारतीय भाषाओं में से
किसी एक का। ये दो पेपर सबके लिए अनिवार्य होंगे। विद्यार्थियों को अंग्रेज़ी या
आधुनिक भारतीय भाषाओं में से किसी एक पेपर को चुनने की छूट होगी। यह छूट
सैद्धांतिक ज़्यादा है, व्यवहारिक कम। साफ़ है कि हिन्दी-भाषी क्षेत्रों के लगभग सभी विद्यार्थी
अनेक कारणों से अंग्रेज़ी ही चुनेंगे। एक कारण यह कि वे हिन्दी में अपने को उतना
ही कुशल मानकर चलते हैं, जितना अंग्रेज़ी में
कमज़ोर। एक और कारण यह कि अंग्रेज़ी को कमाऊ बनाने वाली भाषा ही माना जाता है और
हिन्दी को निखट्टू बनाने वाली ही। अंग्रेज़ी के प्रति गुलाम-ग्रंथि से उबरना अब
भी शेष है। हिन्दी को पूरी तरह नेस्तनाबूद करने के लिए अब यही करना बाक़ी रह गया
है कि शुरू के चार सेमेस्टरों के चारों पेपरों के मामले में अँग्रेज़ी और आधुनिक
भारतीय भाषाओं में से किसी को चुनने की छूट दे दी जाए। तब चारों पेपरों में सिर्फ़
अँग्रेज़ी चुनी जा सकेगी।
ग़ौरतलब है कि
चुनने की छूट अंग्रेज़ी और आधुनिक
भारतीय भाषाओं में है। सारी आधुनिक भारतीय भाषाएँ एक तरफ़ और एक विदेशी भाषा एक
तरफ़। क्या यह भारतीय भाषाओं के साथ अन्याय नहीं? क्या चयन की छूट भारतीय भाषाओं के बीच
नहीं हो सकती? क्या अंग्रेज़ी के साथ छूट के लिए जर्मन, फ्रेंच, चीनी आदि भाषाओं को रखा जाना ज़्यादा उचित
नहीं होता? क्या कुल मिलाकर मामला यह नहीं बनता कि हिन्दी यहाँ हाशिये पर भी नहीं
है? सी. बी. सी. एस. ने
इस गुंजाइश को भी ख़त्म कर दिया है कि बी. ए., बी. कॉम. और बी. एस-सी. (ऑनर्स) के विद्यार्थी, बतौर सब्सिडियरी या क्वालिफ़ाइंग विषय के, हिन्दी भाषा और साहित्य को थोड़ा-बहुत पढ़ सकें।
साफ़ है
कि हिन्दी के बुरे दिन आ गए हैं।
आज के दौर में
अँग्रेज़ी को पढ़ना निस्संदेह ज़रूरी है। अपेक्षित है। अँग्रेज़ी पढ़े बिना सफलता
पाना मुश्किल है। सवाल यह नहीं है कि विद्यार्थी अँग्रेज़ी क्यों पढ़ें। सवाल यह
है कि वे हिन्दी बिलकुल भी क्यों न पढ़ें। क्यों वे विदेशियों के सामने अपनी भाषा
और साहित्य को ठीक-से न जानने पर शर्मिन्दगी बटोरें? सफलता के साथ-साथ अपने जातीय
संस्कारों और इन्सानियत से संपन्न होने का एक भी मौक़ा उनके पास क्यों न रहे? पहले
बी. ए. (पास या प्रोग्राम) में तीनों साल हिन्दी पढ़ाई जाती थी। फिर दो साल पढ़ाई
जाने लगी और अब महज़ एक साल पढ़ाई जाएगी। भविष्य क्या होगा, इसका अनुमान आसान
है। क्या यह नीति-निर्माताओं के हिन्दी और साहित्य-विरोधी मानस का सबूत नहीं?
असल में चुनने की सुविधा एक छूट ही नहीं, छल भी है। कोई साल-डेढ़ साल का बच्चा आग
को छूने की या ट्रैफ़िक से भरी सड़क पर दौड़ने की छूट चाहे तो क्या उसे दी जानी
चाहिए? क्या हमारे यहाँ की स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद विद्यार्थी सिर्फ़
अपने बलबूते अपना ग्रेजुएशन का कोर्स, उसके विषय और उसकी गतिविधियाँ पूरी कुशलता के
साथ चुनने योग्य होते हैं? यदि हाँ तो यह सब तय करने वाली सर्वोच्च संस्थाओं में
उनका प्रतिनिधित्व क्यों न हो? यदि नहीं तो छूट के नाम पर जिस छल के वे शिकार
होंगे, उसकी ज़िम्मेदारी
किसकी? क्या यह सच नहीं कि यदि शिक्षा की दुनिया में सबको पूरी-पूरी छूट दे दी
जाए तो ज़्यादातर नोट कमाने और ख़र्च करने के हज़ारों तरीक़े सिखाने वाले विषय ही
चुनेंगे और तब दर्शन, इतिहास, मनोविज्ञान, साहित्य जैसे ऐसे बहुत-से विषय उसी तरह आत्महत्या
करने को बाध्य होंगे जिस तरह विदर्भ के किसान हुए? ज़ाहिर है कि चुनाव की अनंत छूट
अराजकता के बहुत क़रीब होती है।
ये शिक्षा की दुनिया में भाषाओं और साहित्य को
किनारे की तरफ़ धकियाने वाली सोच के संकेत हैं ताकि उनको पूरी तरह बेदख़ल किया जा
सके। अपनी भाषा और उसके साहित्य से ऐसा क्या ख़तरा है जिससे शिक्षा के
नीति-नियामक जाने-अनजाने डरते हैं? ख़तरा शायद यह है कि अपनी भाषा के साहित्य से
मनुष्य आसानी से जुड़ जाता है। साहित्य मनुष्य को कमाने और भोगने वाला रोबोट-भर नहीं बनने देता।
साहित्य से जुड़कर मनुष्य सोचने-समझने वाला भी बन सकता है। सही को सही और ग़लत को
ग़लत कहने की योग्यता भी उसमें आ सकती है। सही से प्रेम और ग़लत से घृणा भी उसमें
जाग सकती है। वह सही का समर्थन और ग़लत का विरोध भी कर सकता है और अगर ऐसा हुआ तो
उसका सिर्फ़ ग्राहक या निष्क्रिय उपभोक्ता बनना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे में चीज़ें
उसका इस्तेमाल आसानी से करने में असमर्थ होंगी और कॉरपोरेट्स के अनंत मुनाफ़े का
रास्ता मुश्किल हो जाएगा।
सोचने-समझने वाला इन्सान बाज़ार और विलासिता का
शिकार आसानी से नहीं होता और साहित्य इन्सान की सोच-समझ को और ज़्यादा समर्थ, और ज़्यादा असरदार बनाता है। शिक्षा का
मक़सद पहले संपूर्ण मनुष्य का निर्माण हुआ करता था। अब होता है- विलासिता के कोरे
ग्राहकों का निर्माण। साहित्य इस मक़सद के आड़े आता है और इसीलिए ऐसी पॉलिटिक्स की
जाती है, जिससे उसके लिए जीवन में कोई जगह न बचे।
शिक्षा की दुनिया में भी ऐसी पॉलिटिक्स भरपूर है
और सी. बी. सी. एस. इसका ताज़ा उदाहरण। पॉलिटिक्स यह है कि इन्सान निपुण डॉक्टर
बने, खरा
इन्सान न बने। कुशल इंजीनियर बने, खरा इन्सान न बने। घाघ मैनेजर बने, खरा इन्सान न बने। माहिर अफ़सर बने, खरा इन्सान न बने। अभूतपूर्व वैज्ञानिक
बने, खरा
इन्सान न बने। परफ़ैक्ट अकाउंटैंट बने, खरा इन्सान न बने। इस तरह की सोच और उसकी
पॉलिटिक्स भूल जाती है कि समाज में जब खरा इन्सान बनाने वाली प्रक्रियाएं ख़त्म
होने लगती हैं तो उस समाज में अपराध बढ़ने लगते हैं। साहित्य और संस्कृति ऐसी ही
प्रक्रियाएं हैं।
दूसरे कोण से देखें तो सोच और समाज के अपराधीकरण
को रोकने के लिए या कम करने के लिए साहित्य और संस्कृति को बढ़ावा देने की ज़रूरत
है। क्या यह ज़रूरत पूरी करने की उम्मीद उन चैनलों से की जा सकती है, जिनका बुनियादी मक़सद सिर्फ़ मुनाफ़ा है?
उन माता-पिताओं से की जा सकती है, जिनके पास अपनी संतान के लिए भी टाइम नहीं है? उस
इंटरनेट से की जा सकती है, जो हर वस्तु, हर गतिविधि और हर प्रक्रिया को महज़
सूचना या मनोरंजन में बदल देता है?
इसकी उम्मीद शायद शिक्षा से की जा सकती है, सिर्फ़ शिक्षा से। कारण यह कि उसका मक़सद
हर क़ीमत पर सिर्फ़ मुनाफ़ा नहीं होना चाहिए। वह एक पूरा और सफल इन्सान तैयार करने
को अपना मक़सद कहीं न कहीं अब भी मानती है। हालांकि कब तक वह ऐसा मानेगी, यह एफ. वाय. यू. पी. और सी. बी. सी. एस. जैसी
पद्धतियों के चलते एकदम अनिश्चित है। उस सोच के चलते एकदम अनिश्चित है, जिसके लिए साहित्य और संस्कृति की न
इन्सान को कोई ज़रूरत है, न समाज को और न देश को।
इस सोच की ताक़त बढ़ रही है। अपराधों की ताक़त भी
बढ़ रही है। यह बढ़ोतरी इन्सानियत और समाज का कैंसर है। इसे बढ़ने से रोकना है, ख़त्म करना है तो एक बुनियादी सवाल पर
सबको सोचना और अपना पक्ष तय करना होगा। सवाल यह कि क्या साहित्य और संस्कृति का एक
पेपर हर तरह का स्नातक होने के लिए अनिवार्य नहीं होना चाहिए? अगर हिन्दी नेताओं
के लिए सिर्फ़ भाषण झाड़ने और वोट बटोरने का ज़रिया नहीं है तो क्या राष्ट्रभाषा
हिन्दी को उसका हक़ देने वाली पॉलिटिक्स उनके लिए अनिवार्य नहीं होनी चाहिए? क्या
हिन्दी और उसके साहित्य के लिए उसके अपने ही देश में रहने की एक सम्मानजनक जगह
नहीं होनी चाहिए?
ये कुछ
सवाल हैं, जो मुझे परेशान करते हैं। क्या आप भी इनके बारे में कुछ सोचते हैं? इन
पर सोच-विचार, बहस-मुबाहिसा करेंगे, अपनी राय शेयर करेंगे तो कुछ तसल्ली होगी।