जीभ निकाले हड्डी के पीछे
जो लपक-लपक जाती है
दौड़ पॉपुलर होगी लेकिन हमें
तसल्ली
हम तो हिस्से हुए न उसके
हम हिस्से हैं उस गति के जो
धीमी होकर
औरों को रास्ता देने में
ख़ुश होती है
हमें तसल्ली
पीड़ा देने वाले नातों को
अनदेखा करते जाना
इन आँखों ने कभी न सीखा
इस युग में भी आँसू यारो
अपनी-सी पूँजी लगते हैं
झिलमिल-झिलमिल चमका करते
आँखों में रौशनी बढ़ाते
हमें तसल्ली- हमसे कोई
निंदित काम अगर हो जाए तो
शर्मिंदा हो जाते हैं
कोई करे मुँहभर तारीफ़ अगर
मुँह पर तो
मन अब भी सकुचा जाता है
अब भी जब तक चुकता ना हो
जाए कर्ज़ तो छाती पर
बैठा रहता है साँस दबाए
बरसों पहले निर्धनता के
सन्नाटे में
जो आवाज़ मदद को उट्ठी
उसकी मीठी-मीठी गूँज अभी तक
रहती है कानों में
धन, सम्मान, ख़ुशी, मैत्री, यश; चाहे जो हो
कुछ भी हम अपनी क़ीमत पर
क्यों हथियाएँ
हम क्यों इसको-उसको
काट-कूटकर अपनी सड़क बनाएँ
हमें पता है- जिसे ख़रीदा जा
सकता हो
वो पल-भर में बिक सकता है
भले कहीं भी पहुँच न पाएँ लेकिन
यह संतोष रहेगा
हम तो हम ही रहे हमेशा
और ख़ुशी से जी लेने को
ये पूँजी भी कम तो नहीं है!