मैथिलीशरण गुप्त
कृत ‘भारत भारती’ का प्रतिपाद्य
1. ‘भारत भारती’ के वर्तमान खण्ड
के प्रतिपाद्य का विवेचन कीजिए। -2013
2. मैथिलीशरण गुप्त की ‘भारत भारती’ में किन ज्वलंत
प्रश्नों को उठाया गया है? स्पष्ट
कीजिए। -2013
3. संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए: ‘भारत भारती’ की काव्य-भाषा -2013
-यह
रचना संवत् 1968 की राम नवमी से लिखी जानी शुरू हुई और संवत् 1969 की जन्माष्टमी
के दिन पूर्ण हुई। सन् 1911, 1912
-प्रतिपाद्य:
-प्रतिपादन: मूल
विचार का विकास। मूल विचार: भारत क्या
था और क्या हो गया है। भारत प्रगति का प्रतिमान या संसार का सिरमौर था,
अब अवनति का उदाहरण बनकर रह गया है। विकास के तरीक़े: अतीत का गौरव बताने
वाले उदाहरण प्रस्तुत करना। वर्तमान दुर्दशा या समस्याओं के अनेक रूप बताना।
उद्बोधन देना। आह्वान करना। -उद्देश्य: राष्ट्र-प्रेम जगाना और उसे कर्म
में रूपांतरित करना।
-मूल विषय-क्षेत्र: -निर्धनता:
‘‘वह राज-राज कुबेर अब हा रंक का भी रंक है।‘’
–मन्दिर
उजड़ गए। -ज्ञान ख़त्म हो गया। -स्वास्थ्य रोग बन गया। -कर्म नौकरी में
बदल/सिमटकर रह गया। -अकाल और भूख: ‘’है एक
चिथड़ा ही कमर में और खप्पर हाथ में/नंगे तथा रोते हुए बालक विकल हैं साथ में।‘’
‘‘वह पेट उनका पीठ से मिलकर हुआ क्या एक है/मानो निकलने को परस्पर
हड्डियों में टेक है।’’ –भूख के कारण दूसरों का धर्म अपनाना
पड़ता है। -खेती: -जलाशयों के सूख जाने से
खेती बारिश पर ही निर्भर हो गई है। फसल बाहर जाती है। टैक्स बहुत हैं। कहीं
अवर्षण है तो कहीं अतिवर्षण। किसान कर्ज़ में डूबे हैं। महँगाई है। कहीं पाला,
कहीं ओले, कहीं रोग। ‘’भिक्षुक
बनाते पर विधे कर्षक न करना था उन्हें।‘’ वे शिक्षा
के अभाव में अज्ञानी रहते हैं। -गो-वध होता है। दूध-घी दुर्लभ। -बीमारियां बहुत
हैं। -व्यापार परमुखापेक्षी है। चूड़ियां तक विदेशी हैं। सुइयां,
माचिस, छड़ियां;
सब कुछ विदेशी। धन विदेश जाता है। पहले भारत के वस्त्र दुनिया-भर में विख्यात/प्रतिष्ठ
थे। भारत के व्यापार को कर से और प्रतिरोध से नष्ट किया गया। -भारत के रईस आत्मग्रस्त
हैं। अनपढ़ हैं। दंभी हैं। विलासी हैं। शराबी हैं। रईसों के सपूत ऐसे हैं कि उनके
साथ उत्पात भी बढ़ते हैं। -भारत में अशिक्षा है। शिक्षा की व्यवस्था भी ठीक
नहीं। शिक्षा बिकने लगी। शिक्षा का उद्देश्य सिर्फ़ क्लर्क बनकर पेट भरना रह
गया। वह देशभक्ति की बजाय विदेश-भक्ति पैदा करने लगी। ब्रह्मचर्य की बजाय
भोग-विलास को श्रेष्ठ बताने लगी। -साहित्य का काम भी विषय-वासना पैदा
करना/भड़काना रह गया। कवि-कर्म कामुकता बढ़ाना रह गया। उपन्यास सनसनी पैदा करने
लगे। अख़बार देशहित की बजाय द्वेष पैदा कर रहे हैं। संगीत भी विषयासक्ति बढ़ाने
लगा। -उपदेशक दूसरों को विदेशी के बहिष्कार का संदेश देते हैं और ख़ुद विदेशी
पहनते हैं। -धार्मिकता सिर्फ़ गले तक सीमित रह गई,
जो कभी प्राण हुआ करती थी। तीर्थ के पण्डे पाखंड करते हैं। वे पतित,
कामी, व्यसनी हैं। मंदिरों में महंत
विलास करते हैं। साधु-संत कामिनी और कंचन के चक्कर में रहते हैं। -ब्राह्मण वेद
नहीं पढ़ते, यज्ञ नहीं करते,
ज्ञानी होने का पाखंड करते हैं और दान लेना ही अपना उद्देश्य मानते हैं। क्षत्रिय
डाका डालते हैं। रक्षक की जगह भक्षक बन गए हैं। स्त्रैण हो गए हैं। व्यसनग्रस्त
हैं। वैश्य जुआ खेलते हैं। अपने वचन की लाज नहीं रखते। व्यापार का शऊर उनको होता
तो देश का धन ऐसे विदेश नहीं जाता रहता। पैसे की ग़ुलामी करते हैं बस। अपने लाभ के
लिए देश का लाभ दांव पर लगाने में हिचकते नहीं। वासना के दास हैं। शूद्रों की हालत
भी ख़राब है। -स्त्रियां अनपढ़ हैं। कलह-कुशला हैं। बेशर्म हैं,
अश्लील गीत गाती हैं। पुरुष ख़ुद पाप करते हैं और स्त्रियों को सती बनाए रखना
चाहते हैं। ‘‘निज दक्षिणांग पुरीष (विष्ठा) से
रखते सदा हम लिप्त हैं/वामांग में चंदन चढ़ाना चाहते,
विक्षिप्त हैं।’’ –बच्चों का विवाह जल्दी ही कर
दिया जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम का पालन करना उनका आदर्श नहीं रहा। -हिन्दू समाज
कुरीतियों का केन्द्र है। वहां बेजोड़ विवाह हैं। अंध परम्परा-प्रेम है। वर और
वधुएं बिकती हैं। पैसा कमाने के लिए ठगी को भी जायज़ माना जाता है। जुआ खेला जाता
है। दूसरे का धन लूटा जाता है। रिश्वत ली जाती है। मिलावट की जाती है। झूठे और
गंदे विज्ञापन किए जाते हैं। अनेक रूपों में भीख मांगना रिवाज हो गया है। दासता
करते हैं तो स्वामी की बजाय अपना हित साधा जाता है। विवाद किए जाते हैं। अदालतों
में सर्वस्व लुटाया जाता है।
-देश के लोग व्यसनी हैं। पूर्वजों को याद नहीं करते।
परावलम्बी होने में शर्मिंदा नहीं होते। ईर्ष्या करते हैं। ज्ञान बांटने में भी
अनुदार रहते हैं। गुणों से दूर रहते हैं। कोई भले की बात कहे तो शत्रु लगता है।
घरों में प्रेम की जगह द्वेष है। उद्योग की जगह भाग्यवाद है। परनिंदा है। भारत
में ‘‘है और क्या,
दुर्बल जनों का सब तरह सिर काटना/पर साथ ही बलवान का है श्वान सम पग चाटना।’’
-व्यभिचार बढ़ रहा है। वेश्यावृत्ति
बढ़ रही है। आडम्बर बढ़ रहे हैं। -‘‘अब आय तो
है घट गई पर व्यय हमारा बढ़ गया/तिस पर विदेशी सभ्यता का भूत हम पर चढ़ गया।’’
भारतीय विदेशी बनने में गौरव मानने लगे। -अंत में: ‘‘हा
राम! हा! हा कृष्ण! हा! हा नाथ! हा! रक्षा करो/मनुजत्व दो हमको दयामय! दु:ख
दुर्बलता हरो।’’
-उद्देश्य:
पराधीनता के विरुद्ध जागृति आए। देश के प्रति,
अपने कर्तव्य के प्रति जागृति आए। भारतीयता: एक जीवन-शैली। समानता। अंधविश्वासरहित
जीवन। संतोष ही धन है। भारत का व्यवसाय बढ़े,
सम्मान बढ़े, गौरव बढ़े। वह प्रगति,
शांति, संपन्नता और ख़ुशहाली का प्रतिमान
बने।
No comments:
Post a Comment