Tuesday, 21 July 2015

घर... मेरा घर

बस एक घर जहाँ पराया
पराया न रहे
जो आँधियों को
बाँसों की तरह रास्‍ता देना जानता हो
जहाँ सफ़ेदी ढाँपती हो पलस्‍तर की कमियाँ
धूप के ताप से भरी हवा
हर सीलन सुखा देती हो
जहाँ निकले दिन तो लगे कि अब निकलना पड़ेगा
और जाकर लगे कि बस! पहुँच गए

जिसकी दीवारें
माँ की हड्डियों-सी मज़बूत हों
जिसकी नींद में सपने हों
और चुप्पियों में गीत
जहाँ एक आवाज़ पता हो दूसरे के जी का
जिसमें टी. वी. हो भी तो किताबें रहें उसके ऊपर
... जहाँ से लौटने में संकोच हो सूरज के हाथों को

घर जिसमें हर कमरा अपने को
घर साबित करने पर न अड़ा हो
जिसमें दुक्‍खों की धूल पाकर सारे के सारे तिनके
झाड़ू बनने को ललक उट्ठें
जहाँ किसी के आँसू न पोंछे कोई
... पोंछना ही हो तो पोंछे एक-दूसरे का

पसीना। 

Saturday, 11 July 2015

मैं मैं मैं

मैं जब से बैठा हूँ पद पर 
मुझ पर पद भी बैठ गया है 

अपनी स्तुति में खोया-खोया 

दुनिया को देखा करता हूँ 
मुझे देखकर झुके न कोई
क्या ऐसा भी हो सकता है
निकल आए यदि ऐसा कोई तो मुझको लगने लगता है- 
रिश्तों पे गिर पड़ी बिजलियाँ
सारी दुनिया ही अशिष्ट है

उसे बुलाकर

समझाने की भाषा में भी धमकाता हूँ
और क्योंकि वो पदविहीन है
उसको झुकना ही पड़ता है
...मुझे बचाने पड़ते हैं यों सच्चे रिश्ते

चॉकलेट के स्वप्न दिखाकर

चरण चाटने वालों में से एक-एक शातिर को
अपना दुश्मन एक थमा देता हूँ
मेरा वैर निभाने में 
जब जिसे सफलता मिल जाती है
संबंधों के युद्ध-क्षेत्र का वो ही परम वीर होता है
...मुझे बचाने पड़ते हैं यों सच्चे रिश्ते

सुबह-शाम दिन-रात

हमेशा मूर्ख जगत् को समझाता हूँ-
सुंदरता, संगीत, स्वाद, ख़ुशबू... 
सब कुछ मैं 
मुझको समझो जितना समझो उतना ही कम 

मैं आनंदम्... परमानंदम्!


एक कविता अंग्रेज़ी अनुवाद के साथ


तरक्‍़क़ी

इतनी सड़कें... इतने वाहन... इतने पुल
कभी नहीं थे दुनिया में
कभी नहीं था आदमी
इतना अकेला

इतने सारे डॉक्‍टर... इतने सारे रोग
इतने सारे हथियार... इतने सारे डर

इतने सारे प्रसाधन... इतना कम सौंदर्य
इतने सारे मकान... इतने थोड़े घर
इतने सारे शब्‍द... इतनी कम कविता
इतने सारे पत्‍थर... इतनी थोड़ी कला
इतने सारे लोग... इतने कम मनुष्‍य

इतनी सारी व्‍यस्‍तता
और इतने थोड़े काम

वाह री तरक्‍़क़ी... तुझे दोनों हाथों से सलाम!

Progress
By Vinay Vishwas –Translated by: Nandini Guha


So many roads-so many vehicles-so many bridges 
Never before were there in this world
 
Never before was man
 
So utterly alone
 

So many doctors-so many diseases
 
So many weapons-so many fears
 

So many cosmetics-so little beauty
 
So many houses-so few homes
 
So many words-so little poetry
 
So many stones-so few sculptures
 
So many people-so few humans
 
So many occupations-so little work
 

Progress-if this be your claim to fame
 
I bow before you in dread and shame!