बस एक घर जहाँ पराया
पराया न रहे
जो आँधियों को
बाँसों की तरह रास्ता
देना जानता हो
जहाँ सफ़ेदी ढाँपती
हो पलस्तर की कमियाँ
धूप के ताप से भरी
हवा
हर सीलन सुखा देती
हो
जहाँ निकले दिन तो
लगे कि अब निकलना पड़ेगा
और जाकर लगे कि बस!
पहुँच गए
जिसकी दीवारें
माँ की हड्डियों-सी
मज़बूत हों
जिसकी नींद में सपने
हों
और चुप्पियों में
गीत
जहाँ एक आवाज़ पता
हो दूसरे के जी का
जिसमें टी. वी. हो
भी तो किताबें रहें उसके ऊपर
... जहाँ से लौटने
में संकोच हो सूरज के हाथों को
घर जिसमें हर कमरा
अपने को
घर साबित करने पर न
अड़ा हो
जिसमें दुक्खों की
धूल पाकर सारे के सारे तिनके
झाड़ू बनने को ललक
उट्ठें
जहाँ किसी के आँसू न
पोंछे कोई
... पोंछना ही हो तो
पोंछे एक-दूसरे का
पसीना।
shreshth hai!
ReplyDeleteघर की दीवारें हीं जब, छत्त बनने की कोशिश करती हैं
ReplyDeleteतब छत्त रहती, न दीवारें, न घर ही बाक़ी रहता है - सुरेश सौरभ
हर पंक्ति मन को छूती है। घर के जैसी ही गहरी रचना।बधाई।
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