मैं कविता को इतनी हल्की
चीज़ नहीं समझता
कि सुना दी जाए कहीं भी
और उसपर प्रतिक्रिया करें
दो कौड़ी के लोग
सबको अँधेरे में धकेलता
मुँहभर कोसता हूँ
बनाता हूँ अपनी पवित्र
कविताओं के लिए
रौशन रास्ता
रास्ते की बातचीत के नहीं
बातचीत के रास्ते चलता हूँ
मैं
बड़े-बड़े कवियों की
फिसलनें गिनाता
लगेगा नहीं पर मेरे साथ
थोड़ी देर ध्यान से बात करो
तो एक ही रास्ता बचेगा जो
पहुँचेगा
मेरी
... सिर्फ़ मेरी कविताओं तक
मैं
अपनी कविताओं की दुनिया का
सैलानी
आलोचकों को रैकेटियर ठहराता
उनके साथ पैग लगाता
समझाता कि फलाँ जगह उनको
रैकेटियर कहना
इस तरह मेरा आपद्धर्म था...
यह सुन विद्वानों का सुरूर
और गाढ़ा होता
चुपचाप निकल आता
कविता-क़दमों के वास्ते
पाठ्यक्रम का मुक्ति-मार्ग
चुप्पी से, बोली से, हकलाहट, चिल्लाहट या कि फुसफुसाहट से
आरती उतारता हूँ मैं
अपनी कविताओं की
मेरी कविता मेरा भगवान है
और ज़िंदगी मंदिर
... मंदिर में भला
नास्तिकों का क्या काम!
बहुत अच्छा व्यंग्य है। अपनी पवित्र कविताओं के लिए रौशन रास्ता.....सुन्दर लिखा है।वाह!
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